मेरे बाबूजी
मुझे साहित्य और बड़े भाई को कला दी
डॉ. हरिकृष्ण देवसरे
मेरे बाबूजी कवि, लेखक और चित्राकार तीनों थे। उनकी बचपन में शिक्षा उफर्दू में हुई थी। उन्होंने फारसी भी पढ़ी थी। पढ़ने-लिखने के प्रति उनकी रुचि और लगन का अंदाजा आप इससे लगा सकते हैं कि मात्रा 13 साल की उम्र में उन्होंने उफर्दू में एक उपन्यास लिखा था। वह ‘अपफ्जा’ के नाम से थी। वे शायरी भी करते थे। उनके उस्ताद नाम अब्दुल अमीद जेबा था। वे उस समय के उफर्दू के अखबार ‘जमाना’, ‘पैसा’ और ‘जलवए-यार’ जैसे प्रतिष्ठित अखबारों में लिखा करते थे। तब मुंशी प्रेमचंद भी उफर्दू में नवाब राय के नाम से इन अखबारों में लिखा करते थे। इस कारण दोनों में अच्छी मित्राता थी। व्यवसायिक रूप से मेरे बाबूजी ड्राइंग मास्टर थे और नागौद ;सतनाद्ध मध्य प्रदेश के स्कूल में पढ़ाते थे।
ड्राइंग टीचर के साथ-साथ वे स्कूल हॉस्टल के वार्डन भी थे।
जब प्रेमचंद ने हिंदी में लिखना शुरू किया तो उनकी प्रेरणा से उन्होंने भी हिंदी में लिखना शुरू किया। हिंदी की शिक्षा उन्होंने किसी स्कूल में नहीं पाई थी। हिंदी उन्होंने अखबार और किताबें पढ़-पढ़कर सिखी। उन्होंने हिंदी में कविता भी लिखना शुरू किया और अपना उपनाम रखा था ‘अनुरागी हरि’। इस प्रकार उफर्दू में वे ‘अपफ्जा’ और हिंदी में ‘अनुरागी हरि’ के नाम से लिखा करते थे। एक दिन मैंने उनसे कहाµ ‘अनुरागी हरि कहे, अपफ्जा सुनो।’ बाबूजी बोलेµ ‘हम तुम दोनों एक हैं।’ पिफर हम दोनों जोर से हंसे।
बाबूजी अपने जमाने के बहुत ही परिश्रमी और लगन वाले व्यक्ति थे। मैंने उन्हें जब भी देखा कुछ करते ही देखा। उम्र के अंतिम पड़ाव तक। चित्राकला में उनकी गहरी रुचि थी और वे अवरिन्द्रनाथ ठाकुर की शैली में चित्रा बनाते थे। चित्रा बनाते तो पहले पेंसिल से स्केच तैयार। पिफर रंग भरते। पिफर उसे ‘वाश’ करते। और पिफर रंग भरते। यह बड़े ध्ैर्य का काम होता था। मुझे और मेरे बड़े भाई को उनका यह काम बहुत अच्छा लगता अैर हम दोनों घंटों उन्हें चित्रा बनाते देखते। उनके इस काम में मेरे बड़े भईया भी सहयोग करते। और वे भी आगे चलकर चित्राकार बन गए। एक साल में बाबूजी जितना चित्रा बनाते उसकी एक प्रदर्शनी भी लगाते। लोगों की सराहना उनके चेहरे पर मुस्कान लाती।
इतिहास और पुरातत्व में भी उनकी गहरी रुचि थी। उस जमाने के प्रतिष्ठित कलाकार नंदलाल बोस और असित कुमार हलदार के साथ वे खजुराहो के मंदिरों में जाते और वहां की मूर्तियों की अनुकृतियां तैयार करते। यह वह जमाना था जब खजुराहो के मंदिरों की कोई देखभाल नहीं थी। मंदिर के प्रांगण में बड़ी-बड़ी घास उगी थी। ऐतिहासिक स्थलों की दुर्दशा को लेकर वे बहुत दुखी भी थे। इतिहास और पुरातत्व में उनकी रुचि के कारण ही वे काशी प्रसाद जयसवाल और ब्रजमोहन व्यास जैसी हस्तियों के साथ नागौद और उसके आस-पास के ऐतिहासिक स्थलों की खोज किया करते थे। भरहुत स्तूप के खण्डहरों को भी उन्होंने देखा था। उनके द्वारा खोजी गई कई महत्वपूर्ण पुरातात्विक सामग्रियां इलाहाबाद के संग्रहालय में देखी जा सकती है। अपनी इस खोज जा सकती है। अपनी इस खोज में वे कई-कई दिनों तक घर से बाहर रहते। उन्होंने ऐतिहासिक स्थलों पर लंबी-लंबी कई कविताएं लिखीं। इन कविताओं में उन स्थलों का इतिहास, उनका सौंदर्य और वर्तमान दशा सभी का वर्णन होता था। बाद में उन्होंने इन कविताओं की एक पुस्तक भी तैयार की। जिसका नाम है ‘अतीत की लय’। इतिहास में उनकी रुचि इतनी अध्कि थी कि उन्होंने 16 ऐतिहासिक उपन्यास लिखे। उनके नाम हैंµ ‘शाहेअवध्’, ‘परिखाना’, ‘नालंदा’, ‘मस्तानी’, ‘ओरछा की नर्तकी’, ‘नबाव-बेमुल्क’ आदि। ये सभी उपन्यास प्रकाशित हैं। अपने उपन्यासों को वह पहले उफर्दू में लिखते पिफर देवनागरी में। उनका यह परिश्रम और ध्ैर्य मेरी प्रेरणा बनी।
जीवन के अंतिम दिनों में उनको दिखाई कम पड़ता था। इसलिए अपने उपन्यासों की पांडुलिपि मुझसे संशोध्ति कराया करते थे। एक बार उन्होंने एक उपन्यास लिखा ‘गुल्पफाम मंजिल’। पांडुलिपि संशोध्ति करते हुए मुझे उस उपन्यास का अंत अच्छा नहीं लगा। मैंने बाबूजी को बताया कि मुझे इसका अंत अच्छा नहीं लगा तो उन्होंने कहा कि तो ठीक है तुम लिखकर दिखाओ। मैंने लिखा और उन्हें दिखाया। वे बहुत प्रसन्न हुए और खुश होकर 200 रुपए ईनाम में दिया। यह बात 1980 की है। दो साल के बाद उनका निध्न हो गया।
मेरे बाबूजी बहुत शांत और विनम्र स्वभाव के थे। जब मैं मात्रा 6 साल का था कि मेरी मां का निध्न हो गया। हम चार भाई बहन थे। हम सबों की परवरिश बाबूजी ने ही की। मेरे बाबूजी बहुत सामाजिक व्यक्ति नहीं थे। हमेशा अपने काम में ही लगे रहते। हां पर्व त्योहार में आस-पड़ोस के लोगों से मिलना नहीं भूलते। नियमित पूजा-पाठ करते। र्ध्मग्रंथों की भी उन्हें अच्छी जानकारी थी। वे इस बात से बड़े प्रसन्न थे कि मेरे बड़े भाई ने चित्राकला और मैंने साहित्य को अपना लक्ष्य बनाया।
आज कई दिनों बाद पुरावार्ता के लिए यह लेख लिखते समय उनकी याद आई। कई बार आंखे भर आती तो कई ऐसे पहलू भी याद आए जो स्मृतियों में कहीं गुम हो गए थे।