विन्ध्यवासिनी दत्त त्रिपाठी की कविताएं

 


आज भी खूंटे बंधी है नाव


रात भर खेता रहा मैं
पार जाने को
सुबह देखा तो लगा
खूंटे बंधी है नाव
       और थककर चूर मेरे हाथ मेरे पांव
       आज भी खूंटे बंधी है नाव
जिंदगी अंधी अपेक्षा बन
अधूरी रह गयी
पास रहकर भी, हमारे
बीच दूरी रह गई
       जुगनुओं की रोशनी में
       आज भी डूबे पड़े हैं गांव
दूर से आवाज कोई आ रही
कब्र की दीवार लगता
गा रही
क्या पता कब तक मिले
कोई सुपरिचित ठांव
उम्र के अध्याय तो
अब खत्म होने को हुए
रेत में हम आंसुओं के
बीज बोने को हुए
      देहरी से अलग हटकर
      लोग अब
      ढ़ूंढ़ते हैं अमलतासी छांव
      आज भी खूंटे बंधी है नाव


 


 


जाऊं कहां किधर


चौराहे पर खड़ा सोचता
जाऊं कहां किधर
जाने क्यों ऐसा कुछ लगता
मन में बैठा चोर
अनजाने ही रात उतरती 
अनचाहे ही भोर
           डर लगता अब कहां रात से
           कहां सबेरे सिहरन
           रहा सोचता ले जाए पथ
           चाहे जहां जिधर
आती याद अकेले बैठे
भूली-बिसरी बात
विश्वासों के दिन कैसे वे
साधें थीं अहिवात
       अब तो बीती यादों के ही
       साथ बंधा जीवन/गांव छूटता गया
       काटता अब तो मुझे शहर
पता नहीं मेरे जीवन में
ऐसा क्या कुछ हुआ
लगता जैसे मन का दर्पण
रहा किया अनछुआ
        नागपाश नस-नस को कसता
        डूबा जाता मन/चुकता जाता अमृत
        कि भरता जाता रोज जहर
चौराहे पर खड़ा सोचता 
जाऊं कहां किधर


 


रिश्ते, रिश्ते होते थे



बीत गए दिन
जब रिश्ते, रिश्ते होते थे
दिन ही दिन था
रात नहीं थी
चुकती मन की
बात नहीं थी
         नेह-मेह बरसा करते थे
         लगते रहते नित गोते थे
तेज धूप भी तब
शीतल थी
स्रिताएं सब दिन
चंचल थीं
       हंसते-हंसते रात कटी है
       जीवन-भार नहीं ढोते थे
स्नेह-स्नेह से
संवरा मन था
अपनापन था
बेसुधपन था
         ऊसर-धूसर जीवन में भी
         साधों के मोती बोते थे
सावन भी अब
जेठ बना है
अब मन से मन
तना-तना है