षास्त्रीय पद्धति से बंधे कलाकार

 


पुरावार्ता डेस्क


 


                                       


 


कला के क्षेत्र में पालकालीन कला षैली का अपना एक विषिश्ट महत्व है। बिहार और बंगाल की प्रतिभा ने कला की इस नवीन षैली को जन्म दिया। इसे पूर्वी भारत की मगध बंग षैली भी कहा गया है क्योंकि यह पाल वंषीय षासकों के काल में पनपी और विकसित हुई इसलिए इस काल की कला को पाल षैली की श्रेणी में रखा गया है। अगर मूर्ति कला के परंपरागत लक्षणों पर ध्यान दिया जाए तो यह सारनाथ कला का ही एक विकसित रूप कहा जा सकता है। 800 से 1200 ई. तक इस कला षैली में कोई विषेश मौलिक परिवर्तन नहीं दिखाई देता। पालकालीन प्रतिमाओं में साधन माला के नियमों और षिल्प षास्त्रीय नियमों का पालन हुआ है। और षायद यही कारण है कि पालकालीन मूर्तियों में सौंदर्य निखर नहीं पाया है। पालकालीन कलाकार नियमों से तो बंधे दिखते हैं लेकिन उन पर पूर्ववर्ती कला यानी गुप्त काल का प्रभाव था। गुप्त काल की कमनीय और लचीली सुघड़ काया, सूक्ष्म वस्त्र, नपे-तुल आवरण तथा भाव व्यंजकता यहां भी दिखाई पड़ती है।
आठवीं सदी के मध्य में बंगाल में गोपाल नामक व्यक्ति ने पाल राजवंष की स्थापना की। इस राजवंष का षासन चार सौ वर्श से अधिक समय तक रहा। इन पाल राजाओं ने संपूर्ण उत्तरी पूर्वी भारत पर अपना आधिपत्य स्थापित किया। यद्यपि बीच-बीच में उन्हें गुर्जर-प्रतिहारों तथा राश्ट्रकूटों के आक्रमण का सामना करना पड़ा फिर भी संघर्श की स्थिति में भी पाल षासकों ने अपना आधिपत्य बिहार और बंगाल में अक्षुण्ण रखा। पाल षासक कला के पोशक थे।
  पालकालीन प्रस्तर मूर्तियां अधिकतर बलुआ और स्लेटी पत्थर की बनी हैं। राजमहल और मंुगेर की खड़गपुर पहाड़ी में यह पत्थर अधिक मिलता है। मुंगेर जिले के सीता कोइवर में एक प्राचीन खान का पता चला है जिसमें से स्लेटी पत्थर निकाल गए हैं। इनका उपयोग पाल काल के स्मारकों और मूर्तियों को बनाने में हुआ है।
 पाल काल के पहले यानी गुप्त काल में षिल्पी को मूर्ति निर्माण में अपनी सौंदर्य कल्पना को आकार देने करने का पूरा-पूरा अवसर प्राप्त था। फलस्वरूप मूर्तियां अतिषय रमणीय और भावव्यंजक बन गई। पाल काल की मूर्तियों में सौंदर्य का इतना बोध होता नहीं दीखता। कलाकार षास्त्रीय पद्धति से बंधे हुए थे।
 वैसे पाल काल की आरंभिक देव प्रतिमाओं में मानवीय सौंदर्य को आकर्शक रूप में दर्षाया गया है। देवियों की मूर्तियों में उन्नत वक्ष, क्षीण कटि, विस्तृत नितम्ब, दीर्घ जंघा के माध्यम से भारतीय रमणी सौंदर्य कमनीय छवि का प्रस्तुतीकरण है। फिर भी इसमें गुप्तकालीन मूर्तियों सी गतिषीलता नहीं आ पाई है। पालकालीन मूर्तियों में मांसलता पर अधिक जोर दिया गया है इसलिए भी इनमें थोड़ी स्थूलता आ गई है। पुरुश मूर्तियों में भी नारी सुलभ कमनीयता का भाव परिलक्षित हुआ दिखता है। बोधिसत्व और अन्य देवताओं की मूर्तियों में नारी सौंदर्य और षक्ति का समावेष हुआ है। गोलाकार चेहरा कोमल चिकनाई लिए अंग। हमारे षास्त्रों में कहा गया है कि पुरुश में जब नारी के गुण आ जाते हैं तो वह पुरुशोत्तम हो जाता है। लगता है पालकालीन कलाकार अपनी पुरुश मूर्तियों में पुरुशोत्तम के भाव ही दर्षाना चाह रहे हैं।
 इस काल मैं बौद्ध, जैन तथा ब्राह्मण धर्म से संबंधित अनेक देवी देवीताओं की मूर्तियां निर्मित हुई । बौद्ध और ब्राह्मण धर्म के व्यापक प्रसार के कारण इन दोनों धर्मों से संबंधित मूर्तियां ही बिहार और बंगाल के विविध क्षेत्रों से व्यापक पैमाने पर प्राप्त हुई है। बिहार से प्राप्त प्राचीन मूर्तियों में सबसे अधिक पालकालीन मूर्तियां हमें प्राप्त हुई है लेकिन नालंदा, गया, भागलपुर, दिनाजपुर, पहाड़पुर, राजगृह, भोजपुर, पटना में तो पालकालीन मूर्तियों की खान ही है।
 नालंदा की खुदाई से यह सिद्ध होता है कि नालंदा विष्वविद्यालय पाल कला का एक प्रमुख केंद्र था। नालंदा, योगाचार और ब्रजयानका प्रधान केंद्र था। इनसे संबंधित मूर्तियां यहां से प्राप्त हुई है। पालकालीन मूर्तियों की यह विषेशता है              कि वे किसी विषेश कार्य में रत दिखाई गई हैं। बुद्ध के जीवन से संबंधित दृष्यों में माया देवी का स्वप्न तृशित स्वर्ग से उतरते बुद्ध, गृहत्याग, वासुरेन्द्र का मधुदान, विजय, हस्तिका दमन से संबंधित मूर्तियां उसी श्रेणी में आती हैं। बुद्ध की कुछ स्वतंत्र मूर्तियां भी इस काल में बनी है। जैसे सिरपर मुकुट, गले में हार आदि आभूशणों से अलंकृत महात्मा बुद्ध की मूर्तियां। पटना संग्रहालय में सुरक्षित भूमि स्पर्ष मुद्रा में बनी बुद्ध की मूर्ति पालकालीन कला की उत्कृश्ट देव है। अधमुंदी आंख और गंभीर चेहरे से बुद्ध के षांत और धीर व्यक्तित्व का आभास होता है। बुद्ध की अलंकृत एक मूर्ति बोस्टन संग्रहालय की षोभा बढ़ा रही है। उसमें बुद्ध मुकुट और हार दोनों पहने है। पालकालीन मूर्तियों की हथेली तथा तलवा का कमल पुश्प उत्कीर्ण है जो पाल षैली की विषेशता बतलाता है।
 पालकालीन ब्राह्मण मूर्तियों में हमें विश्णु, षिव, सूर्य, गणेष तथा देवियों की मूर्तियां देखने को मिलती है। पटना संग्रहालय में विश्णु की स्थानक मुद्रा की एक मूर्ति है। मुकुट तथा अन्य आभूशणों से अलंकृत विश्णु के पार्ष्व में लक्ष्मी और सरस्वती की आकृति प्रदर्षित है। संपूर्ण षिल्प में अलंकरण की अपूर्व सजा है। षिव के अनेक रूपों में गया से प्राप्त कल्याण सुंदर रूप की एक मूर्ति में षिव और पार्वती के विवाह दृष्य का मनोरम चित्रण हुआ है। त्रिषूल, डमरू और कपालधारी षिव अपने एक हाथ को आगे बढ़कर पार्वती का पाणिग्रहण कर रहे हैं। षिव और पार्वती दोनों की आंखें नीचे झुकी है, मानों लज्जा के भाव हो। बिहारषरीफ से प्राप्त उमा महेष्वर की एक मूर्ति में प्रणय भावना अत्यन्त संुदर है। मुंगेर से प्राप्त पालकालीन सूर्य की मूर्ति में सूर्य खड़े हैं और उनके दोनों हाथों में कमल है। कुशाणकालीन सूर्य मूर्तियों की तरह यहां भी सूर्य ठेहने तक लंबा और चौड़ा फीता से बंधा जूता पहने हैं।
 पालकालीन नृत्यरत गणेष की मूर्ति अत्यन्त ही आकर्शक है। गणेष के छह हाथ बायीं ओर मुड़ी है, क्योंकि उसी ओर के हाथ में लड्डू है। दाहिने हाथ में परषु और पाष और तीसरा पेट को स्पर्ष कर रहा है। बाएं हाथ में फणधर नाग, पुस्तक आौर लड्डू की थाली है। सिंहासन पर छोटा चूहा उत्कीर्ण है। षरीर के अंग और मुड़े हुए पैरों को देखकर मूर्ति विषेशज्ञों ने इसे नृत्यरत गणेष कहा। अन्य देवी देवीताओं के अंतर्गत कार्तिकेय, सरस्वती, मातृका, नाग, गंधर्व, लक्ष्मी आदि की मूर्तियां बिहार और बंगाल के विविध क्षेत्रों से प्राप्त हुई है। पालकालीन धातु प्रतिमाएं भी खुदाई के दौरान प्रकाष में आती रहती है। इसमें तारा देवी की मूर्ति या षिव पार्वती की मूर्ति काफी महत्वपूर्ण है।
 पालकालीन कलाकारों का कला के प्रति रुझान तो था ही साथ-साथ उन्हें साधनमाला और षिल्पषास्त्रीय नियमों की पूरी जानकारी थी।