मील के घेरे में कान चीरता अट्टहास

मील के घेरे में कान चीरता अट्टहास     


                     


                                               


 


 


आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के प्रिय शिष्य और शायद सबसे प्रिय शिष्य विश्वनाथ त्रिपाठी की पुस्तक 'व्योमकेश दरवेश' पढ़ रहा। हर पंक्ति में यादों का जादू था। एक रोचकता। सो इस पत्रिका के लिए उनको फोन किया और अनुमति मांगी पुस्तक का अंश छापने की। उनकी आज्ञा से यह अंश आपके लिए।
                                                                 पेज संख्या 62
प्रसि़द्ध अभिनेता बलराज साहनी को शांतिनिकेतन द्विवेदी जी के पास अज्ञेय ही ले गए थे। द्विवेदी जी की एकाध रचनाओं में बलराज नाम का एक पात्र संवादी विवादी के रूप में आता है। संभवतः वे बलराज साहनी ही हैं। बलराज साहनी द्विवेदी जी के आत्मीय थे। उनके छोटे भाई भीष्म साहनी भी। साहनी परिवार का द्विवेदी जी बहुत आदर करते थे। मार्च 1939 के 'हंस' में द्विवेदी जी पर बलराज साहनी का एक लेख छपा है। लेख क्या है, ललित निबंध है। शैली इतनी मोहक है कि पंक्ति-पंक्ति से द्विवेदी जी प्रति आत्मीयता का रस टपकता है, मानो द्विवेदी जी की कलम से बलराज साहनी ने लिखा हो। मेरी जानकारी में द्विवेदी के गंभीर, फक्कड़, विनोदी और स्फटिक के समान पारदर्शी व्यक्तित्व को चित्रित करने वाला यह पहला लेख है। शान्तिनिकेतनी द्विवेदी जी के चरित्र को चित्रित करने वाला पहला और अद्वितीय लेख जो लेखक के बहुक्षेत्रीय सर्जनात्मक व्यक्तित्व की संभावनाओं को भी उजागर करता है। शायद शान्तिनिकेतन के वातावरण में ही ऐसा कुछ था जो लेखकों को ऐसी जीवंत शैली प्रदान करता था। काश! बलराज साहनी ने हिंदी में प्रचुर साहित्य लिखा होता।
'द्विवेदी जी में एक दोष है, ढीलम-ढालम रहते हैं। हजामत हफ्ते में एक बार से अधिक नहीं करते। तिस पर जो व्यक्ति  पहली नजर में उन्हें जंच जाए उसकी खैर, जो न जंचे उसे सामने बिठाकर उसके मुंह की ओर देखते रहते हैं। इसलिए कई महानुभाव शांन्तिनिकेतन से यह धारणा बनाकर लौटते हैं कि द्विवेदी जी बैरागी आदमी हैं। 
बलराज साहनी यह लिखना नहीं भूलते कि द्विवेदी जी के आलोचनात्मक लेखों को पढ़कर लोग अनुमान कर लेते हैं कि शास्त्राचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी 55 और 60 के दरमियान होंगे (1939 में द्विवेदी जी 32 साल के थे) कहते हैं कि इसी उम्र में प्रेमचंद भी उन्हें आचार्य समझते थे। बलराज साहनी ने लिखा कि वास्तव में ये दोनों बातें गलत हैं। और वे खुद उन्हीं सौभाग्यशालियों में से हैं जिनकी ओर वे चुपचाप एकटक देखा करते हैं। 1967 में बलराज साहनी का यह लेख पढ़कर मैंने पंडितजी से पूछा कि आप कुछ लोगों को चुपचाप, बड़ी देर तक एकटक विस्मित-चकित भाव से इस प्रकार क्यों देखा करते हैं? पंडितजी ने कहा कि जब कोई आदमी अतीव आत्मविश्वासपूर्वक बोलता ही चला जाता है तो मैं हैरान होकर सोचने लगता हूं कि यह ईर्ष्याजनक आत्मविश्वास इसमें कैसे आया और किंकर्त्तव्यविमूढ़ होकर उसे निहारता रहता हूं। पंडितजी का उत्तर सुनकर हममें से अनेक को याद आया कि वे कभी-कभी हम लोगों को भी ऐसे ही चुपचाप एकटक निहारते रहते हैं।
बलराज साहनी ने द्विवेदी जी के दिगन्तव्यापी अट्टहास की चर्चा की है। शायद यह द्विवेदी जी के अट्टहास का हिंदी साहित्य में प्रथम उल्लेख है। बलराज साहनी ने लिखा है- पंडितजी विरक्त नहीं हैं। इसका प्रमाण है कि जिस मंडली के साथ शाम को सैर के लिए निकलते हैं उसका अट्टहास मील के घेरे में कान चीरता है। उनके शुभचिंतक शान्तिनिकेतन से आने वाले बटोहियोेें से प्रायः यही सवाल-जवाब करके संतुष्ट हो जाते हैं-
'पंडितजी हंस रहे हैं ना?'
'हां, हंस रहे है।'
   'मतलब यह कि पंडितजी हंस रहे हैं तो शान्तिनिकेतन में सब-कुछ ठीक-ठाक है।'
बलराज साहनी द्विवेदी जी के आत्मीय मित्रों में से थे। वे लिखते हैं कि पंडितजी देखने में छह फीट से कम नहीं, साथ ही यह भी किवे ऐसे महापंडित के शिष्य हैं जो सत्तर वर्ष की अवस्था में भी डेढ़ सौ सपाटा दंड बैठक नियमपूर्वक लगाते थे। इन महापंडित ने डबल निमोनिया में भी सपाटों से निमोनिया का इलाज करना चाहा और भगवान को प्यारे हो गए। यह संकेत अनुमानतः पंडित वामदेव शास्त्री की ओर है।
बलराज साहनी के लेख से पता चलता है कि द्विवेदी जी चलती हुई रेलगाड़ी देखने के इतने शौकिन थे कि दूर से आती हुई हरहराहट सुनते ही मित्रों से बहस-मुबाहिसा करना छोड़ देते थे, चप्पल उतारकर हाथ में ले लेते थे और लाइन की तरफ गाड़ी देखने के लिए दौड़ पड़ते थे।
ऊपर-ऊपर से यानी पहली नजर में बलराज साहनी का यह लेख परिचयात्मक, संस्मरणात्मक और विनोदपरक लगता है लेकिन यह लेख द्विवेदी जी के बारे में उनके व्यक्तित्व की निजता और साहित्य की समस्याओं के प्रति उनके गहरे सरोकार का भी संकेत करता है। साहनी के अनुसार, द्विवेदी जी जीवन-प्रेमी व्यक्ति हैं और एक जीवंत व्यक्ति की तरह वे जीवन-स्थितियों को तटस्थ होकर देख सकते हैं। दूसरों पर हंस सकते हैं और अपने पर भी।
'उनमें जीवन के चरम उद्देश्य साहित्य-कला की आर्यता के प्रति गहरी श्रद्धा है। ज्ञान और अनुभव के लिए अतोषणीय भूख है। सूई से लेकर सोशलिज्म तक सभी वस्तुओं का अनुसंधान करने के लिए उत्सुक रहते हैं। किसी विषय पर उनकी धारणाएं अचल नहीं होतीं।'
बलराज साहनी ने 1939 के आलोचक पंडित हजारीप्रसाद द्विवेदी के आलोचनात्मक लेखन को गंभीर तथा सारगर्भित कहा है। साथ में यह सूचना भी दी कि 'प्रशंसात्मक पत्रों को फाड़कर फेंक देते हैं। अखबारों में तस्वीर छपवाना बुढ़ापे के लिए स्थगित कर रखा है। रुपए-पैसे की परवाह नहीं करते।'
बलराज साहनी ने इतना लिखकर अपनी टिप्पणी जोड़ी है-
'ऐसे आदमी न हंस तो कौन हंसे!'


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