प्यासा कौवा

प्यासा कौवा                                    


                                                                                      


                                                                                                               



हम सब ने प्यासे कौवे की कहानी तो जरूर सुनी होगी कि किस तरह उसने घड़े में कम पानी होने पर उसमें कंकड़ डाला और पानी के ऊपर आने पर अपनी प्यास बुझाई। लोथल से प्राप्त एक लघु चशक (प्याले) पर एक दिलचस्प उदाहरण है जिस पर  'प्यासा कौवा' की लोककथा बलुए तल पर काले रंग से चित्रित की गई है। यह पात्र यह साबित करता है कि इस कहानी की जड़ कितनी पुरानी है। और षायद यही कारण है कि यह कहानी हमारी लोक संस्कृति बन गई है। इसी तरह मोहनजोदाड़ो और हड़प्पा से प्राप्त अन्य सामग्रियां भी कई बातों को उजागर करती हैं। रोपड़ से प्राप्त आधार युक्त तष्तरी पर हड़प्पा संस्कृति का स्पश्ट प्रभाव है। राजस्थान के बरोर से प्राप्त पकी मिट्टी से बनी मानव आकृतियां एवं सेलखड़ी से बनी बटन के आकार की मुहर दिलचस्प उदाहरण है। यह स्थल लुप्त सरस्वती नदी के दाहिने किनारे पर स्थित है।


 पंजाब के ढलेवां से तांबे की कुल्हाड़ी, पकी मिट्टी से बने मुहरे तथा पत्थर के बने बाट इस काल के अन्य उदाहरण हैं। उत्तर प्रदेष में स्थित मांडी अपने आप में विषिश्ट स्थल है क्योंकि यहां से प्रचुर मात्रा में हड़प्पा काल के स्वर्णाभूशण प्राप्त हुए हैं। जिनमें मनके तथा कंगन प्रमुख हैं। स्वर्ण आभूशण गुजरात के खिरसरा से भी प्राप्त हुए हैं। सनौली से प्राप्त श्रृंगी तलवार एवं राखीगढ़ी से प्राप्त दर्पण हड़प्पा संस्कृति के निवासियों के उत्कृश्ट धातुकर्म-ज्ञान के उदाहरण है।
 धौलावीरा कई विषिश्टताओं के कारण एक प्रमुख हड़प्पीय स्थल के रूप में उभरा है। यहां से प्राप्त पत्थर के विषाल भवनावषेश एवं सात सांस्कृतिक चरण हड़प्पा सभ्यता के उदय एवं पतन की पूरी कहानी को दर्षाते हैं। यह स्थल अपने जल प्रबंधन, दस षब्दों के संभवतः विष्व के प्राचीनतम साईन बोर्ड (संकेत पटल) तथा अर्धबहुमूल्य पत्थरों जैसे जैस्पर, कार्नेलियन, ऑनिक्स, टरकॉइज, अगेट, अमेजोनाइट, चाल्सीडोनी तथा चर्ट आदि से निर्मित वृत्ताकार, आयताकार अण्डाकार तथा बेलनाकार, मनकों की वजह से प्रसिद्ध हुआ। धातु निर्मित छेनियां, कुल्हाड़ियां, चाकू तथा तांबे तथा कांसे से बनी पषुओं की मूर्तियां आदि सोप स्टोन तथा खडिया (सेलखड़ी) मिट्टी से निर्मित मुहरें, पत्थर के बाट और विभिन्न प्रकार के मृदभाण्ड आदि भी उत्खनन से प्राप्त हुए हैं। यहां से पकी मिट्टी की मातृ देवी विषेश उल्लेखनीय हैं तथा पषुओं की आकृतियां प्रचुर मात्रा में प्राप्त हुई हैं, इतिहास के लगभग सभी कालों में इस तरह के चित्रण कलाकार की कला को दर्षाने का प्रमुख माध्यम रहे हैं। सनौली में मिले कब्रिस्तान से तांबे की श्रंृगी तलवार मिली है जिसे ताम्र निधि संस्कृति से जोड़ा जाता है। सनौली से प्राप्त मृदभाण्ड भी काफी सम्पन्न सभ्यता को दर्षाते हैं।
 जोर्वे के उत्खनन के साथ ही ताम्र-पाशाण काल में नए युग का उदय हुआ। यहां से मृदभाण्डों की विषिश्ट षैली प्राप्त हुइ्र जिसे स्थल के नाम के साथ ही 'जोर्वे वेयर' के नाम से जाना जाता है। चिचली (मध्य प्रदेष) से ताम्र-पाशाणकाल के मृदभाण्ड आहाड़, मालवा एवं जोर्वे संस्कृति के हैं। छेनी व परषु जैसा उपकरण मालवा संस्कृति की भी उल्लेखनीय उपलब्धि है। ओझियाना (राजस्थान) से प्राप्त पकी मिट्टी की गाय की आकृति तथा खापरखेडा (मध्य प्रदेष) से प्राप्त चालसीडोनी का ब्लेड, भी उल्लेखनीय है।
 लगभग 1500 ईसा पूर्व में मानव द्वारा लोहे का उपयोग प्रारंभ हुआ जो उस समय बहुतायत से प्रयोग करने हेतु सामान्य धातु थी। धीरे-धीरे तांबे का स्थान लौह धातु ने ले लिया। इस काल को भारत में लौह युग (आयरन एज) कहा जाता है। इसे विषिश्ट बृहत् पाशाण संस्कृति काल से संबंद्ध माना जाता है जहां बहुत से दैनिक उपयोग के उपकरणों को इस विष्वास के साथ कि 'मृत्यु के बाद जीवन है', कब्र में रखा जाता था। प्रारंभिक लौह काल के स्थल चित्रित धूसर मृदभाण्ड संस्कृति से संबंद्ध हैं जबकि बृहत पाशाणकाल काले एवं लाल (ब्लैक एंड रेड) मृदभाण्डों से संबंधित है। 'चक 86' से चित्रित धूसर मृदभाण्ड पकी मिट्टी के अतिरिक्त क्वार्टज, कार्नेलियन, अगेट तथा लाजवर्त पत्थरों के मनके मिले हैं। सिरथउर के समाधि स्थल से कार्नेलियन के उत्कृश्ट मनके प्राप्त हुए हैं। कडनाड समाधि स्थल से लौह उपकरण जैसे कृपाण, बरछा तथा चाकू प्राप्त हुए हैं। काले-लाल मिट्टी के कटोरे तथा रिंग स्टैण्ड आदिचन्नालूर से उल्लेखनीय प्राप्ति हैं।