मगध-मौर्य साम्राजय के सिक्के

मगध-मौर्य साम्राजय के सिक्के


 


 


पुरावार्ता डेस्क                                                             


 


भारत के जिन सबसे पुराने सिक्कों को आहत या पंचमार्क कहा जाता है, उन्हें मुख्यतः दो श्रेणियों में बांटा गया है। जिन्हें जनपद या क्षेत्रीय श्रेणी के आहत सिक्के कहा जाता है, वे अधिक पुराने हैं और षैली, तौल तथा बनावट की दृश्टि से भिन्न-भिन्न प्रकार के हैं। दूसरी श्रेणी के आहत सिक्कों का संबंध मगध के साम्राज्य के साथ जोड़ा गया है। आरंभ में मगध भी एक महाजनपद था और तब उसकी राजधानी राजगृह (राजगिर) में थी, मगर अजातषत्रु के समय में, 460 ई.पू. के आसपास, राजधानी पाटलिपुत्र में स्थानांतरित होने पर मगध के साम्राज्य का तेजी से विकास होने लगा। तब से मगध के नए किस्म के सिक्के चले, जो तौल में राजगिर के सिक्कों से भिन्न हैं। ये सिक्के एक प्रकार से मगध साम्राज्य के मानक सिक्के बन गए और नंद तथा मौर्य षासकों के समय में भी इन्हीं का प्रचलन रहा। इसीलिए इन्हें मगध-मौर्य श्रेणी के आहत सिक्के कहा जाता है।
 चंदी के इन आहत या पंचमार्क सिक्कों के लिए संस्कृत साहित्य में पण या कार्शापण षब्द देखने को मिलते हैं। पालि बौद्ध साहित्य में इन्हें कहापण कहा गया है। मगध-मौर्य श्रेणी के इन कार्शापणों की प्रमुख विषेशता यह है कि इनके पुरोभाग पर प्रायः पांच आहत चिन्ह देखने को मिलते हैं। चूंकि ये सिक्के काफी सावधानी से तैयार किए गए हैं, इसलिए इनके तौल में भी काफी एकरूपता है। ये सिक्के 32 रत्ती भार के यानी 3.5ग्राम या 54 ग्रेन भार के हैं। अधिकतर कार्शापण आयताकार या चौकोर हैं, किंतु कइ्र गोलाकार भी हैं। ईसा-पूर्व पांचवीं सदी के लगभग मध्यकाल में मानक तौल के चांदी के इन आहत कार्शापणों का चलन षुरू हुआ था। आगे करीब तीन सौ साल तक देष में प्रमुखतः इसी तरह के सिक्के बनते रहे। फिर ईसा-पूर्व दूसरी सदी के लगभग मध्यकाल में इनका बनना बंद हो गया। फिर भी आगे चार-पांच सौ साल तक, गुप्तकाल तक, देष में इनका चलन जारी रहा।
 चूंकि चांदी की इन आहत मुद्राओं का संबंध मुख्यतः मगध के साम्राज्य से जोड़ा जाता है, इसलिए मगध के राजवंषों पर भी एक नजर डाल लेना उपयोगी होगा। बिंबिसार (544-493 ई.पू.) ने वैवाहिक और मैत्री-संबंधों के मगध के साम्राज्य का विस्तार किया था। उसके पुत्र अजातषत्रु (493-462 ई.पू.) ने राज्य-विस्तार के लिए कूटनीति और सैन्य-षक्ति का सहारा लिया। अजातषत्रु के उत्तराधिकारी उदय ने पाटलिपुत्र को सुदृढ़ बनाकर उसे मगध की राजधानी बनाया। उसके उत्तराधिकारी कमजोर निकले, तो मगध पर षिषुनागों का अधिकार हो गया, जिन्होंने मध्य प्रदेष, अवंती और उत्तरापथ के कई प्रदेषों को मगध साम्राज्य में षामिल कर लिया।
 फिर लगभग 364 ई.पू. से 324 ई.पू. तक मगध पर नंद वंष का षासन चला। उस दौरान मगध साम्राज्य का दूर-दूर तक विस्तार हुआ। उन्हीं के षासन के अंतिम दिनों में, 326 ई.पू. में, सिकंदर ने पष्चिमोत्तर भारत पर हमला किया था। सिकंदर के भारत से लौट जाने पर चंद्रगुप्त मौर्य ने नंदों से मगध का राज्य छीन लिया और 324 ई.पू. में एक नए राजवंष की नींव डाली। चंद्रगुप्त के समय में मगध साम्राज्य की सीमा हिंदूकुष तक पहुंच गई थी और उसके उत्तराधिकारी बिंदुसार ने दक्षिणापथ का काफी बड़ा हिस्सा जीत लिया था। बिंदुसार के पुत्र अषोक (373-236 ई.पू.) ने कलिंग पर विजय प्राप्त करके पष्चिम में हिंदूकुष (काबुल-कंदहार) से लेकर पूर्व में बंगाल की खाड़ी तक और उत्तर में हिमालय-कष्मीर-नेपाल से लेकर दक्षिण में मैसूर तक अपने साम्राज्य का विस्तार किया। मगर अषोक के उत्तराधिकारी कमजोर निकले। षुंग वंष के पुश्यमित्र ने 178 ई.पू. के मगध की गद्दी पर अधिकार कर लिया। ईसा-पूर्व दूसरी सदी के लगभग मध्यकाल से मगध साम्राज्य का विघटन षुरू हो गया।
 इस तरह अजातषत्रु के समय से षुंग वंष के अंत तक लगभग सारे देष में चांदी के जो पंचमार्क सिक्के चलते रहे उन्हें मुद्राविदों ने 'मगध-मौर्य श्रेणी' के सिक्कों का नाम दिया है। इन सिक्कों के पुरोभाग पर पांच चिन्ह या लांछन देखने को मिलते हैं, जो विभिन्न ज्यामितीय आकृतियों-वृत्त, चक्र, सूर्य, वृशभ, मृग, मानव, गैंडा, मछली आदि-के रूपों में हैं। लांछनों के इन विविध रूपों के आधार पर इन आहत सिक्कों को करीब 550 प्रकारों में पहचाना गया है, मगर इनके पुरोभाग पर जो पांच लांछन पाए जाते हैं, उनका अपना एक क्रम है और उसमें प्रत्येक लांछन का अपना एक निष्चित स्थान है। इनमें पहला लांछन या चिन्ह 'सूर्य' है और यह इस श्रेणी के सभी सिक्कों पर मौजूद है। दूसरा चिन्ह 'शडरचक्र' है, जिसके विविध रूप हैं। षेश तीन चिन्ह विभिन्न प्रकार के हैं। इन सिक्कों के पृश्ठभाग पर कई प्रकार के नन्हे-नन्हे चिन्ह पाए जाते हैं।
 इन आहत सिक्कों के पुरोभाग पर जो पांच चिन्ह हैं उनके आधार पर इन्हें कालक्रम में रखने और मगध के विभिन्न राजवंषों से जोड़ने के प्रयास किए गए हैं। सूर्य और शडरचक्र के लांछन इस श्रेणी के सभी सिक्कों पर मौजूद हैं। तीसरा चिन्ह, दामोदर धर्मानंद कोसांबी के मतानुसार, राजवंष का सूचक है, और चौथा चिन्ह षासक की राजमुद्रा है। अक्सर देखने को मिलता है कि पांचवां चिन्ह (युवराज का) अन्य सिक्कों पर चौथा चिन्ह (राजा का) बन गया है। यह परिवर्तन इस बात का सूचक है कि युवराज अब राजा बन गया हैं इस तरह, इन आहत सिक्कों के अजातषत्रु, षिषुनाग, नंद वंष तथा मौर्य वंष के साथ समीकरण स्थापित करने के प्रयास किए गए हैं।
 मौर्यकाल में बड़े पैमाने पर सिक्के बनाए गए थे। मौर्यों के चांदी के सिक्कों में मिलावट भी ज्यादा है। मानक कार्शापण के अलावा मापक और काकिनी नामक छोटे सिक्के भी चलते थे। मौर्यकाल में तांबे के सिक्कों का भी चलन था, मगर ऐसी आहत मुद्राएं बहुत कम मिली हैं। उस समय के एक अभिलेख से पता चलता है कि गंडक नामक एक सिक्के का मूल्य चार कौड़ियों के बराबर था। विदर्भ (महाराश्ट्र) में चार कौड़ियों के लिए 'गंडा' षब्द हाल तक प्रचलित रहा है।